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बेरोजगारी का दंश में सिसकता भारत के युवा का दर्द ! (Shri Ramjanki Times)

 Shri Ramjanki Times

बलिया। भारत विश्व की सबसे युवा प्रधान देश है और इस देश की युवा बेरोजगारी बड़ा दंश झेल रही है। पिछले 75 सालों में इस देश में बेरोजगारी का बढ़ते जनसंख्या हेतु कोई ठोस पहल ना किया जाता भारत को कहीं ना कहीं एक बड़े प्रश्न की ओर खड़ा करती है। 


सिर्फ जनसंख्या का बढ़ना बेरोजगारी जैसे बड़े समस्या का कारण नही हो सकता, इसमें सबसे बड़ी कारण भारत की शिक्षा प्रारूप,सरकार की पालिसी एवं उनका बेरोजगार के खात्मे के प्रति समर्पण की ओर इंगित करती है। रोजगार एक ऐसा शब्द है जिसको सुनते ही बहुतेरे लोग जो छात्र जीवन से अपने आप को एक रोजगार परख लोगों की श्रेणी में लाना चाहते हैं। 


यह ऐसा आनंद प्राप्त करता है जिसकी कल्पना शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति कर पाए जो कभी इसके लिए ललायित ना रहा हो। कोई भी छात्र अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद दूर कहीं एक कमरे में सन्यासी बन बैठा है और हर बीतते दिन के साथ वह आशा किए रहता है कि एक न एक दिन सबेरा आएगा जो उसके और उसके परिवार के जीवन में खुशियों का रंग भर देगा।


 और वह इसी पल के खुशी को महसूस करने में लग जाता है। फिर तैयारी में उन्हीं किताबों के पन्नों में उन्हीं गणित के सवालों में उन्हीं अंग्रेजी के अनुवादों में इसी लालसा से कि एक न एक दिन वह भी रोजगार प्राप्त कर अपने छात्र जीवन की कठिनाइयों को लोगों को बताएगा। 


कुछ लोग उसकी मेहनत पर शाबाशी देंगे तो कुछ उससे प्रेरणा प्राप्त कर अपने लक्ष्य की फिराक में लग जाएंगे। लेकिन क्या यह एक दिवा स्वप्न ही रह जाएगा ? उसके जीवन में वह कभी खुशहाली का दिन आएगा जिस दिन उसके माता-पिता जो बड़ी मशक्कत से उसको महीने का खर्च देकर बाहर देश में पढ़ने के लिए भेजते है। भले ही वह अपने उपर सारी कमियों का दंश झेल लेते। 


ऐसा नही कि वह छात्र संयासी बन बैठा है और अपनी तपस्या में उसको उसे बात का भान नहीं पर अगर वह इन सब चीजों में लिपट जाएगा तो उसका ध्यान भी टूट जाएगा। लेकिन उसकी तपस्या को भंग करने के इसके भी बड़े कारण मौजूद है। यह इन रोजगार देने वालों की मंशा पर कैसे विश्वास किया जाए। 


सरकारी आंकड़े बताते है कि देश में औसतन लगभग 8 करोड़ से अधिक लोग प्रति वर्ष सरकारी रोजगार कार्यालय में अपना नाम दर्ज करवाते हैं जिनमें से सालाना लगभग एक लाख लोगों को ही नौकरियां मिल पाती है। 


अब आप ही बताइए बाकी लोग कहां जाएंगे ? लाखों करोड़ों नौजवान क्या करेंगे ? एक चपरासी के पद के लिए पीएचडी,इंजीनियरिंग किए युवा भेड़िए की दौड़ लगाते रहते है। "सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकोनोमी" के बेरोजगारी संबन्धी आंकड़ों के अनुसार मार्च 2023 में भारत में बेरोजगारी की दर तेजी से बढ़ी। बेरोजगारी दर दिसम्बर 2022 में बढ़कर 8.30 फीसदी हो गई थी,लेकिन जनवरी 2023 में घटकर 7.14 फीसदी हो गई। फरवरी 2023 में फिर बढ़कर 7.45 फीसदी तक पहुंच गई। 


मार्च 2023 के नए आंकड़ों के अनुसार भारत में बेरोजगारी दर 7.8 फीसदी के उच्च स्तर पर है। एक छात्र के लिए एक 10 फीट का कमरा उसका पूरा दुनिया होता है उसी में एक गैस चुल्हा,किताब, सोने के बिछोने, सुलाने जगाने के लिए एक घड़ी होती है और इसी कमरे में ना जाने कितनी होली, दीवाली,दशहरा,ईद मुहर्रम आदि चिंतित आंखों में खत्म हो जाती है, ना जाने कितने कागज और कलम समाप्त हो जाती है।


 घर से मिलते महीने के पैसे खत्म हो जाते है तो ट्यूशन पढ़ा कर इधर उधर हांथ पांव मारकर एक ही पेंट-शर्ट में पाकेट में सौ दो सौ रुपए रख प्लेटफार्म में सोकर,देश के एक कोने से दूसरे कोने को नापते रहते है। इसमें कुछ सफल होते है और हजारों वही फिर रास्ते में धूल फांकते रहते हैं। ऐसा नहीं कि बचे लोग के पास काबिलियत योग्यता नहीं है बस उनके लायक सरकार के ऐसा काम नही है। 


इसीलिए बेरोजगारी का दंश झेलते रहते हैं और एक जिंदा लाश बन जाते हैं। समाज,घर के दबाव और अपनी जिम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए शादी हो जाती है। जिम्मेदारी बढ़ जाती है। कुछ छोटे मोटे जीविकोपार्जन का कार्य करते हैं। कुछ युवा डिप्रेशन के शिकार हो जाते है और जीवन से तंग आकर दुनिया को अलविदा कह देते है। जो सामाजिक चेतना को जगाने वाले प्रौढ़ व्यक्ति जिनके लिए इनका साम्राज्य ही सब है। इन तप कर रहे साधकों पर ध्यान क्यों नही जाता है। इनकी चेतना तब क्यों मर जाती है। 


क्या केवल दो वक्त रोटी नसीब हो जाना ही विकास की पराकाष्ठा है और आजादी के इतने साल बाद भी यही वह जरूरत है जिसे चेतना जागरूक व्यक्ति पूरा नहीं कर पाए तो यह क्या खाक विकास है जहां के मांगने वालों को दो वक्त रोटी मिल रही, लेकिन क्या उसकी आकांक्षा केवल दो वक्त की रोटी की है क्या उसका अधिकार नहीं कि वह रोटी कपड़ा व मकान से आगे जाकर कुछ करे। 


अपने व अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी तो एक मजदूर भी कमाता है लेकिन क्या वह अपने बच्चों को इसी कमाई के लिए पेट काटकर पढ़ाता है कि वह भी बस रोटी की आकांक्षा लेकर ही जीवन गुजार दे। इस पर हम सबको और उनको जो जन चेतना को जगाने का काम करते हैं। अपनी चेतना को भी जगाएं और उन संन्यासियों को खुशहाली का सवेरा दें। जिनकी ताक में वह वर्षो से तप कर रहे है।

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